ज़िंदगी की गलियों में अकेले घूमते हम
ज़ेहन में उठते सवालों का जवाब ढूंडते हम
सँग चलते हैं इतनों के
फिर भी तन्हा ही रेहते हम
ज़ेहन में उठते सवालों का जवाब ढूंडते हम
सँग चलते हैं इतनों के
फिर भी तन्हा ही रेहते हम
खुशी के पल आते हैं
और चले जाते हैं
फुलझडी सी रौशनी कर के
दोबारा अंधेरा छोड जाते हैं
कयूँ नही रोज़ रोज़ रहता
वो खुशी वाला समाँ
कयूँ नहीं उदासी आते ही
रुख कर लेती कहीं और का
क्या ये हमारी फ़ितरत है
या दुनिया का दस्तूर
हम ही ऐसे जीते हैं
या सभी इतने मजबूर
Something i wrote long back… just found it while deleting old stuff from my comp…